
ठाकुर उत्पीड़न और सत्ता की चुप्पी: क्या ठाकुरवाद के नाम पर ठाकुरों का ही दमन?
उत्तर प्रदेश में जातिगत राजनीति की जड़ें जितनी पुरानी हैं, उतनी ही गहरी भी। लेकिन बीते कुछ वर्षों में जो घटनाएं प्रकाश में आई हैं, वे यह सवाल उठाने को मजबूर करती हैं कि क्या वास्तव में ठाकुर समाज सत्ता की मुख्यधारा में है, या फिर “ठाकुरवादी सरकार” के नाम पर सबसे अधिक ठाकुर उत्पीड़न इसी समाज का हो रहा है?
हाल ही की तीन बड़ी घटनाओं जैसे कि मथुरा, अलीगढ़ और कानपुर ने इस विषय को फिर से विमर्श के केंद्र में ला दिया है। तीनों मामलों में पीड़ितों की जातिगत पहचान ‘ठाकुर’ रही है और हर बार पुलिस प्रशासन की भूमिका संदेह के घेरे में रही है। यह घटनाएं अकेली नहीं हैं, बल्कि एक क्रमिक श्रृंखला का हिस्सा हैं जो समाज में हो रहे ठाकुर उत्पीड़न को दर्शाती हैं।
मथुरा: जब न्याय की उम्मीद ने दम तोड़ा
मथुरा की घटना में एक किसान बृजमोहन सिंह और उसके परिजनों को पुलिस चौकी पर ही पीटा गया। वीडियो सामने आने के बावजूद प्रशासन ने शुरुआत में कोई ठोस कार्रवाई नहीं की। यह साफ संकेत देता है कि सत्ता के निकट जातियों को जब पीड़ित के रूप में देखा जाता है, तो उन्हें न्याय मिलना भी एक संघर्ष बन जाता है। यह मामला केवल एक व्यक्तिगत उत्पीड़न का नहीं, बल्कि पूरे ठाकुर समाज के आत्मसम्मान पर चोट है।
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अलीगढ़: खून से लिखी गई अपमान की कहानी
अलीगढ़ की घटना में एक युवक को सरेआम पीटा गया, उसके चेहरे पर खून के निशान सत्ता की चुप्पी पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा करते हैं। क्या ठाकुर उत्पीड़न अब ‘नॉर्मलाइज’ किया जा चुका है? या फिर यह सोची समझी रणनीति का हिस्सा है जिसमें ठाकुर समाज को हाशिए पर धकेलने की कोशिश की जा रही है?
कानपुर: सड़कों पर न्याय की हत्या
कानपुर मेंदो लोगों द्वारा एक ठाकुर युवक को सरेआम पीटे जाने का वीडियो वायरल हुआ, लेकिन प्रशासनिक प्रतिक्रिया फिर से शून्य रही। जब कानून का भय समाप्त हो जाए और जाति आधारित हिंसा सार्वजनिक हो जाए, तो यह सामाजिक विघटन का संकेत है।
ठाकुरवादी सरकार सिर्फ एक मीडिया द्वारा फेलाया हुआ भ्रम जाल
जो सरकार स्वयं को ‘ठाकुरवादी’ कहलवाने में गर्व महसूस करती है, उसी सरकार के कार्यकाल में अगर ठाकुर समाज सबसे अधिक ठाकुर उत्पीड़न का शिकार हो, तो यह एक विडंबना नहीं, बल्कि राजनीतिक छलावा है। सत्ता की कुर्सी पर बैठे ‘ठाकुर’ नेता अपने ही समाज के दर्द से आंखें फेर लेते हैं, और यह समाज एक भ्रम में जीता रहता है कि सत्ता में ‘हमारे लोग’ हैं।
दधीचि की हड्डियाँ और सिंहासन की मजबूती
आज के दौर में ठाकुर समाज की स्थिति ऋषि दधीचि जैसी प्रतीत होती है जिनकी हड्डियों से देवताओं का वज्र बना और वही वज्र अंततः उन्हें निगल गया। ठाकुर युवाओं की आस्था और समर्थन का दोहन कर सत्ता के स्तंभ मजबूत किए गए, लेकिन जब बात उन युवाओं की सुरक्षा, सम्मान और न्याय की आती है, तो वही सरकार मूकदर्शक बन जाती है।
राजनीतिक निष्क्रियता और सामाजिक पतन
हर बार जब ठाकुर उत्पीड़न की कोई घटना होती है, ठाकुर समाज के नेता या तो चुप रहते हैं या मात्र प्रतीकात्मक बयानबाज़ी करते हैं। कोई धरना नहीं, कोई आंदोलन नहीं, और न ही सामाजिक लामबंदी। यह निष्क्रियता ही ठाकुर समाज की राजनीतिक अप्रासंगिकता का कारण बनती जा रही है।
अब भी समय है चेतने का
अगर ठाकुर समाज को अपनी अस्मिता, सम्मान और भविष्य की रक्षा करनी है तो उसे सत्ता के जातिगत चश्मे से बाहर आकर अपनी आवाज़ बुलंद करनी होगी। अन्यथा “ठाकुरवादी सरकार” का सिंहासन हर उस चिता की लकड़ी से मजबूत होता रहेगा जो किसी ठाकुर की जलती हुई अस्मिता की प्रतीक बन चुकी है।
अब निर्णय समाज को लेना है कि वे केवल गौरवशाली इतिहास का स्मरण करते रहें या फिर वर्तमान के अन्याय के खिलाफ खड़े हों।